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अग्ना३इ पत्नी॑वन्त्स॒जूर्दे॒वेन॒ त्वष्ट्रा॒ सोमं॑ पिब॒ स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒र्वृषा॑सि रेतो॒धा रेतो॒ मयि॑ धेहि प्र॒जाप॑तेस्ते॒ वृष्णो॑ रेतो॒धसो॑ रेतो॒धाम॑शीय ॥१०॥

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पद पाठ

अग्नाऽ२इ। पत्नी॑व॒न्निति॒ पत्नी॑ऽवन्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। त्वष्ट्रा॑। सोम॑म्। पि॒ब॒। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। वृषा॑। अ॒सि॒। रे॒तो॒धा इति॑ रेतःऽधः। रेतः॑। मयि॑। धे॒हि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। ते॒। वृष्णः॑। रे॒तो॒धस॒ इति॑ रेतः॒ऽधसः॑। रे॒तो॒धामिति॑ रे॒तःऽधाम्। अ॒शी॒य॒ ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री अपने पुरुष की किस प्रकार से प्रशंसा और प्रार्थना करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) समस्त सुख पहुँचानेवाले स्वामिन् ! (सजूः) समान प्रीति करनेवाले आप मेरे (देवेन) दिव्य सुख देनेवाले (त्वष्ट्रा) समस्त दुःख विनाश करनेवाले गुण के साथ (स्वाहा) सत्यवाणीयुक्त क्रिया से (सोमम्) सोमवल्ली आदि औषधियों के विशेष आसव को (पिब) पीओ। हे (पत्नीवन्) प्रशंसनीय यज्ञसम्बधिनी स्त्री को ग्रहण करने (वृषा) वीर्य्य सींचने (रेतोधाः) वीर्य्य धारण करने (प्रजापतिः) और सन्तानादि के पालनेवाले ! जो आप (असि) हैं, वह (मयि) मुझ विवाहित स्त्री में (रेतः) वीर्य्य को (धेहि) धारण कीजिये। हे स्वामिन् ! मैं (वृष्णः) वीर्य्य सीचने (रेतोधसः) पराक्रम धारण करने (प्रजापतेः) सन्तान आदि की रक्षा करनेवाले (ते) आपके सङ्ग से (रेतोधाम्) वीर्य्यवान् अति पराक्रमयुक्त पुत्र को (अशीय) प्राप्त होऊँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस संसार में मनुष्यजन्म को पाकर स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य, उत्तम विद्या, अच्छे गुण और पराक्रमयुक्त होकर विवाह करें। विवाह की मर्यादा ही से सन्तानों की उत्पत्ति और रतिक्रीड़ा से उत्पन्न हुए सुख को प्राप्त होकर नित्य आनन्द में रहें। विना विवाह के स्त्री-पुरुष वा पुरुष-स्त्री के समागम की इच्छा मन से भी न करें। जिससे मनुष्यशक्ति की बढ़ती होवे, इससे गृहाश्रम का आरम्भ स्त्री-पुरुष करें ॥१०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पत्नी स्वपुरुषस्य कथं प्रशंसां प्रार्थनाञ्च कुर्य्यादित्युपदिश्यते

अन्वय:

(अग्ना३इ) सर्वसुखप्रापक ! (पत्नीवन्) प्रशस्ता यज्ञसम्बन्धिनी पत्नी यस्य तत्सम्बुद्धौ (सजूः) यः समानं जुषते सः (देवेन) दिव्यसुखप्रदेन (त्वष्ट्रा) सर्वदुःखविच्छेदकेन गुणेन (सोमम्) सोमम् सोमवल्ल्यादि-निष्पन्नमाह्लादकमासवविशेषम् (पिब) (स्वाहा) सत्यवाग्विशिष्टया क्रियया (प्रजापतिः) सन्तानादिपालकः (वृषा) वीर्य्यसेचकः (असि) (रेतोधाः) रेतो वीर्य्यं दधातीति (रेतः) वीर्य्यम् (मयि) विवाहितायां स्त्रियाम् (धेहि) धर (प्रजापतेः) सन्तानादिरक्षकस्य (ते) तव (वृष्णः) वीर्य्यवतः (रेतोधसः) पराक्रमधारकस्य (रेतोधाम्) वीर्य्यधारकमिति पराक्रमवन्तं पुत्रम् (अशीय) प्राप्नुयाम्। अयं मन्त्रः (शत०४.४.२.१५-१८) व्याख्यातः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने स्वामिन् ! मया सजूस्त्वं देवेन त्वष्ट्रा स्वाहा सोमं पिब। हे पत्नीवन् ! त्वं वृषा रेतोधाः प्रजापतिरसि, मयि रेतो धेहि। हे स्वामिन् ! अहं वृष्णो रेतोधसः प्रजापतेस्ते तव सकाशाद् रेतोधां पुत्रमशीय ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इह जगति मनुष्यजन्म प्राप्य स्त्रीपुरुषौ ब्रह्मचर्य्योत्तमविद्यासद्गुणपराक्रमिणौ भूत्वा विवाहं कुर्य्याताम्, विवाहमर्य्यादयैव सन्तानोत्पत्तिरतिक्रीडाजन्यसुखसम्भोगं प्राप्य नित्यं प्रमुदेताम्। विना विवाहेन पुरुषः स्त्रियम्, स्त्री पुरुषं वा मनसापि नेच्छेद्, यतः स्त्रीपुरुषसम्बन्धेनैव मनुष्यवृद्धिर्भवति, तस्माद् गृहाश्रमं कुर्य्याताम् ॥१०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या संसारात मनुष्य जन्म प्राप्त झाल्यामुळे स्त्री व पुरुष यांनी ब्रह्मचर्य, उत्तम विद्या व उत्तम गुण यांनी युक्त होऊन पराक्रमी बनावे आणि विवाह करावा. विवाहाच्या मर्यादेनेच संतानांची निर्मिती करावी व रतिक्रीडेमुळे होणारे सुख प्राप्त करून आनंद भोगावा. विवाहबाह्य संबंधाची इच्छाही स्त्री-पुरुषांनी मनात आणू नये. मानवी (शक्ती) मूल्ये वाढतील अशा तऱ्हेने गृहस्थाश्रमाचा आरंभ करावा.